अहंकार की क्षणिक प्रकृति: विनम्रता का एक पाठ Secrets

अँधेरी रात है, और हमारी आँखों में नशा है, बेहोशी है, नींद है, हमें कुछ दिखाई देगा ही नहीं। जब कुछ दिखाई देगा ही नहीं तो हमें ये कौन जताएगा कि हम नर्क में हैं?

उत्तर- हॉकी एक प्राचीन खेल है। यह पुराने समय से भारत

कह रहा अहंकार की क्षणिक प्रकृति: विनम्रता का एक पाठ है, "ये उतर गई तो मेरी खाल उतर जाएगी।" ‘कै’ और ‘मैं’ चिपक कर एक हो जा रहे हैं। गड़बड़ हो गई न। जबकि बात ये है अगर टीशर्ट उतरेगी तो दिक़्क़त उतरेगी, बदबू उतरेगी।

पर अहम् माने कैसे कि, "हमने झूठ बोला था"? अहम् माने कैसे कि पुरानी ग़लती करी थी? अपने-आपको देखो न, तुम्हें ग़लती मानना अच्छा लगता है कभी? तो तुम ही तो अहम् हो। अहम् को नहीं अच्छा लगता कि मान ले कि ग़लती कर दी। सारी ग़लतियाँ किसने करी हैं?

” या तो गुरु मिल जाता है, या तो जीवन ही उसे बाध्य कर देता है उसे अपने-आपसे ये प्रश्न पूछने के लिए, “इतना भटके, इतना श्रम किया, मिला क्या?”

प्रश्नकर्ता: तो क्या स्वयं को किसी भी पहचान से परिभाषित करना ही अहम् है?

तो प्रार्थना करने के लिए बड़ी काबिलियत चाहिए।

जो बातें सीधी हैं उनमें तुमको क्या नहीं समझ में आता?

प्रायः अपने स्वाभिमान को ठेस पहुँचाने जैसा होता है।

अरे! मजबूरियाँ बहुत होती हैं। आचार्य जी, आप समझते नहीं। मैं तो क्या करूँ, इत्ता सा हूँ, इत्ता सा, इत्ता सा', तो फिर आपके जीवन में कोई चमत्कार नहीं आने वाला। और अगर जीवन में चमत्कार नहीं है तो जीवन जीने लायक नहीं है।

साधारण जीवन जीने में उसे आज भी कोई संकोच नहीं होता है। वह मेहनती है, जुझारू है।

विनम्रता व्यक्ति का गहना होती है। इसकी शुरुआत अहंकार के अंत से ही होती है। जीवन में हमें शांति और आनंद का अनुभव तभी होता है, जब हम लोगों के समक्ष विनम्रता का भाव प्रकट करते हैं। हमें विनम्रता के आभूषण का वरण कर अपनी आंतरिक असीम शक्ति को जागृत करना चाहिए। अगर हम ऐसा कर पाते हैं, तो निश्चय ही सभी तरह के मानसिक मनोविकारों से भी खुद को बचा सकते हैं, अपने खुशहाल जीवन की नींव रख सकते हैं।

मित्रों से हॉकी स्टिक उधार माँग कर वे खेलते थे। जब उनके बड़े भाई को भारतीय कैंप

ये वो नहीं बता पाएगा। ये राजसिक मन है। ये दौड़ता तो ख़ूब है, भागता तो ख़ूब है, पहुँचता कहीं नहीं। पर तामसिक मन से ये फिर भी श्रेष्ठ है, क्योंकि इसमें इतनी तो ईमानदारी है कि ये मानता है कि ये नर्क में फँस सकता है और इसे नर्क से बचना है। तामसिक मन तो ये भी नहीं मानता कि वो नर्क में फँसा हुआ है। तामसिक मन ने तो नर्क को ही स्वर्ग का नाम दे रखा है। तो इसीलिए शास्त्रों ने राजसिक होने को तामसिक होने से बेहतर बताया है।

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